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चौहान वंश की उत्पत्ति आबूगढ़ पर्वत पर हुई थी। ऋषियों ने कांस की पुतली बनाकर अग्निकुंड में होम किया और मंत्र से संजीवन मंत्र फूंका। चार जाति के क्षत्रिय आबू पर्वत पर उत्पन्न हुए, जिनमें से पहले साख चौहान थे। पहले पुतले से पहली साख चौहान हुई और पहले राजा श्री वसुदेव चौहान हुए। राजा वसुदेव के वंशजों में श्री पृथ्वीराज चौहान तृतीय हुए जिन्होंने अजमेर और दिल्ली पर शासन किया।
• श्री पृथ्वीराज चौहान (तृतीय)
• उनके पुत्र: श्री चीता जी और श्री अखेरा जी
• श्री अखेरा जी की भार्या: श्रीमती हाकी देवी
• अखेरा जी के पुत्र: श्री जगदेव जी, श्री अमर सिंह जी, श्री कर्पूर चंद्र जी और श्री वीरसेन जी
श्री अखेरा जी के चारों पुत्र शिकार करने वन में गए। वन में उन्हें जैन गुरुदेव श्री शांति सूरी जी तपस्या करते मिले। चारों भाइयों ने उनके चरणों में वंदन किया और धर्म उपदेशना सुनी। उन्होंने गुरुदेव से जीवदान और शत्रु भय से मुक्ति की प्रार्थना की। गुरुदेव ने उन्हें जैन धर्म आदरने, जीवदया पालन करने, शिकार का त्याग करने और उनके समगति श्रावक बनने का उपदेश दिया। चारों भाइयों ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन किया, जैन धर्म ग्रहण किया। गुरुदेव ने तीन दिन तक तेला पचकाया और उपदेश सुना। जैन धर्म ग्रहण करने के बाद गुरुदेव ने माता अम्बा जी का ध्यान कराया।
माता अम्बा जी ने बिल्व वृक्ष फाड़कर दर्शन दिया और गुरुदेव के सामने प्रकट हुईं। गुरुदेव ने माताजी से राजकुमारों के कष्ट और शत्रु भय का निवारण करने की प्रार्थना की। माताजी ने वर दिया कि अब उनको शत्रु भय नहीं रहेगा। उन्होंने डूंगरों में प्रतिबोध दिया और डूंगरवाल गोत्र की स्थापना की। तब से कुलदेवी माताजी का नाम बिलाव माताजी हुआ।
श्री जगदेव जी प्रथम डूंगरवाल हुए तथा चांग गांव में बसे।
हमारे कुछ पूर्वजों ने चांग से सन् 1282 (संवत 1225) में धाकड़ी गाँव ↗ (पाली और सोजत के मार्ग में स्थित) में आकर निवास किया। इसी स्थान से 'धाकड़' शब्द का प्रयोग गोत्र (डूंगरवाल गोत्र की शाखा) के रूप में होने लगा।
• पाण्डुलिपियों में धाकड़ गोत्र (डूंगरवाल गोत्र की शाखा) के उल्लेख Link ↗
तत्पश्चात श्री जसराज जी धाकड़ लगभग सन् 1734 में रामपुरा, मध्य प्रदेश, में प्रवास हेतु आये।
उपरोक्त सभी तथ्य हमारे परिवार की प्राचीन पांडुलिपियों पर आधारित हैं।
• पाण्डुलिपि 1 - Side A Link ↗
• पाण्डुलिपि 1 - Side B Link ↗
• पाण्डुलिपि 2 - Side A Link ↗
• पाण्डुलिपि 2 - Side B Link ↗
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वर्ष 1986, हर वर्ष की भांति अपने गाँव रामपुरा जाना हुआ। वहाँ आदरणीय काका सा. श्री धन्य कुमार जी धाकड़ के सहयोग से हमारे परिवार का 16 पीढ़ियों का वंश वृक्ष देखा। उस दिन से, मन में हमारे पूर्वजों को जानने और खोजने की जिज्ञासा जाग उठी। यह उत्कंठा धीरे-धीरे गहरी लगन में बदल गई, और दैव कृपा से, कुछ प्राचीन पांडुलिपियाँ प्राप्त हुई। और आज आपके सामने प्रस्तुत है हमारे परिवार का 60 पीढ़ियों से अधिक का विशाल वंश वृक्ष।
हर परिवार में कोई न कोई होता है, जिसे मानो पूर्वजों को खोजने का आह्वान मिलता है। उनकी कहानियों को शब्दों में ढालने और उन्हें पुनर्जीवित करने का। यह उनके जीवन और उपलब्धियों को याद करने का, और यह महसूस करने का अवसर है कि वे कहीं ना कहीं हमें देख रहे हैं और हमें आशीर्वाद दे रहे हैं।
वंशावली बनाना केवल तथ्यों को इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि यह उन सभी को श्रद्धांजलि देना है जो हमसे पहले इस धरती पर चले हैं। हम अपनी जड़ों के कहानीकार हैं। हर समुदाय, हर वंश का अपना कहानीकार होता है। और हमें, मानो हमारे पूर्वजों के जीनों (Family Genes) ने ही पुकारा है। उन्हें ढूंढते हुए, हम कहीं न कहीं खुद को भी ढूंढ लेते हैं।
यह सिर्फ तथ्यों को दस्तावेज करने से कहीं ज्यादा है। यह मेरी पहचान से जुड़ा है, और मैं जो कुछ भी करता हूं, उसके पीछे का कारण है। यह वंश वृक्ष केवल एक चार्ट नहीं है, बल्कि यह हमारे परिवार की कहानी है, हमारी विरासत है। यह उन सभी पीढ़ियों का सम्मान है जिन्होंने हमें बनाया है।
माता-पिता का आशीर्वाद, पत्नी और बच्चों का समर्थन, यही वो स्तंभ हैं जिनके सहारे यह कार्य आज आपके समक्ष प्रस्तुत हो पाया है।
मैं दादा भाई श्री महावीर विमल चंद जी धाकड़ के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिनके मार्गदर्शन के फलस्वरूप ही मुझे अपने कुलगुरु से मिलने और प्राचीन पांडुलिपियों को प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
यह हमारे सम्पूर्ण डूंगरवाल तथा धाकड़ परिवार की अनमोल थाती है। आशा है कि यह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।